थमी हुई ज़िंदगी को नवजीवन देने की बात
महापुरुषों को हम उनके विशिष्ठ गुणों के चलते मान-सम्मान देते हैं, लेकिन एक बात पर आपने कभी गौर किया है? हादसे उनके जीवन का अनिवार्य हिस्सा रहे है। दुःख के झंझावात से घिरे रहकर उन्होंने कभी सृजन का, नए चिंतन का दामन नहीं छोड़ा और हम? हम क्यों ठहर जाते हैं एक छोटे से तनाव के, कष्ट के या संकट के आगे?
दौड़ता-भागता जीवन किसी मोड़ पर रुक गया और लगने लगा – अब एक कदम भी आगे बढ़ाना न हो सकेगा, तब मन में आया है यह विचार बार-बार – सांसे ही गुजारनी हैं, जिंदगी का आनंद तो जाता रहा। हालांकि ऐसा सोचना निराधार है। ऐसा होना सिर्फ जीवन की बहुरंगी फिल्म का मध्यांतर है, ‘द एंड’ नहीं। सिनेमाघर में फिल्म देखते हुए हम यकायक पते हैं की पीछे से आता प्रकाश थोड़ी देर के लिए ठहर गया और और रील पर छपी चटख तसवीरें सामने फैले चांदी जैसे परदे पर उभरनी बंद हो गई हैं। यह वक्त होता है, ढाई-तीन घंटे की फिल्म के बीच थोड़ी देर सुस्ताने का। ऐसे ही जीवन में आता है मध्यांतर। हमें हमेंशा अपने आप को यह याद दिलाते रहना होगा की ‘ज़िंदगी खूबसूरत है।
थमी हुई ज़िंदगी को नवजीवन देने की बात करने से पहले यह जानना जरुरी है की जीवन दरअसल, है क्या ! सचमुच यह एक पहेली है, जो कभी हंसाती है, कभी रुलाने में भी कसर नहीं छोड़ती, लेकिन हम भी क्या खूब है, कितनी भी मुश्किल में ज़िंदगी से प्यार करना कभी नहीं छोड़ते। यही है जिजीविषा। संघर्ष अपनी ज़िंदगी के लिए। सब कुछ सही रहे, हर मौका महज खुशी लेकर आए, तब भी तो ज़िंदगी नीरस हो जाएगी। दुःख, व्याधियां, बीमारियां, मुश्किलें – असल में हमारे सहचर हैं। अक्सर दामन थाम लेती हैं। इनका हंसकर ही स्वागत करना चाहिए।
खैर, हम बात कर रहे थे नवजीवन की, एक नई ज़िंदगी अपने व्यक्तित्व को दे देने की ! तो जब कभी ऐसी जरुरत आ जाए तो क्या करना चाहिए? क्या दुःख से घिरकर निढाल होना सही होगा या फिर उसका हिम्मत के साथ सामना करना… दुःख में ही नएपन की नींव डाल लेना ! यकीनन, आप कहेंगे की दुःख से दो-दो हाथ करना ही समझदारी है, पर कैसे…?
जीवन को उलझन मान लेने से कोई हल नहीं निकलता। क्यों न जीवन जीने की कला हम सीख लें…? जान लें, वो अंदाज, जिससे ज़िंदगी खूबसूरत हो जाती है…. खुशनुमा बन जाती है। सोचिए, ज़िंदगी ऐसी खूबसूरत हो तो इसके बारे में बात करते वक्त किसका दिल न खिल उठेगा। हर आंख में तब खुशी की तसवीरें रंगत बिखेरती नज़र आएगी। ज़िंदगी जीना अपने आप में एक कला है और ये कला तब और ज्यादा दिलकश हो जाती है, जब आप कलाकार की तरह ज़िंदगी को महसूस करें। जीवन की सरगम अपनी धड़कनों की एक-एक आहट में सुनें।
एक सूक्ति है – साहित्य संगीत कला विहीनः, साक्षात् पशुः पुच्छ विषाण हीनः। इसमें कहा गया है की साहित्य, संगीत और कला से रहित व्यक्ति पशु की तरह ही है। हम ऐसे न बन जाऐं, इसके लिए सृजनात्मकता की लहर से थके मन को लैस कर देना होगा। यूं, सृजन का तात्पर्य साहित्य, संगीत और कला से ही नहीं है। सृजन, यानी कुछ जन्म देना। कुछ नया गढ़ना। कुछ नया निर्माण करना। जीवन में कला कितनी जरुरी है… इसकी परख के लिए आइए एक पुराना प्रसंग दोहरा लेते हैं।
राजकुमार सिद्धार्थ के विवाह का प्रसंग
राजकुमार सिद्धार्थ का विवाह करने के लिए राजा शुद्धोधन यशोधरा के पिता दंडपाणि के पास गए। दंडपाणि एक सामान्य नागरिक ही थे। आज का जमाना होता तो कोई आम आदमी किसी राजा के बेटे से बेटी का विवाह करने का प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लेता, लेकिन दंडपाणि ने मना कर दिया। उन्होंने कहा की सिद्धार्थ को पहले यह प्रमाणित करना होगा की वे सुरुचिपूर्ण व्यक्ति हैं। कला, साहित्य और संगीत की समझ रखते हैं, तभी में अपनी कन्या का हाथ उनके हाथ में दूंगा। सिद्धार्थ को अपनी रुचियों को प्रमाणित करने के लिए उस समय नवासी प्रतियोगिताओ में भाग लेना पड़ा था।
सोचने वाली बात है। हम सब अपना जीवन कला से विमुख होकर कैसे गुजार देते हैं? क्या हमें खुद को अच्छा, सुरुचिपूर्ण और खास साबित नहीं करना चाहिए? और यह बात खुद को खास करने तक ही सिमित नहीं है। जब तक जीवन में कला के लिए आदर भाव नहीं होगा, हम ज़िंदगी की खूबसूरती को समझ ही नहीं पाएंगे। ऐसा भी नहीं है की हर व्यक्ति को कलाकार हो जाना चाहिए और सभी कलाओं में पारंगत होने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, लेकिन यह आवश्यक है की कला-साहित्य और संगीत समेत विभिन्न सर्जनात्मक कलाओं के लिए मन में प्यास पैदा की जाए। उन्हें सराहने का भाव पैदा किया जाए।
क्या हमें कुदरत की हर धड़कन साफ-साफ सुनाई देती हैं?
“ज़िंदगी जीना कला है और ये तब ज्यादा दिलकश हो जाती है, जब आप किसी कलाकार की तरह ज़िंदगी को महसूस करें। जीवन की सरगम धड़कनों की एक-एक आहट में सुनें।”
हमारे लिए सवाल है… ! क्या हमें कुदरत की हर धड़कन साफ-साफ सुनाई देती हैं? कोई गीत सुनते वक्त क्या हमारी आँखों में आंसू या होंठों पर हंसी के नग्मे छिड़ जाते हैं? कोई चित्र देखते समय मंत्रमुग्ध हो पाते हैं… अगर ‘हां’ तो हमारे अंदर का कलाकार बचा हुआ है और ज़िंदगी हमारे लिए प्यार का गीत है, लेकिन जवाब ‘न’ में हुआ तो बहुत गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। कहीं न कहीं हमारी ज़िंदगी के रस्ते से कला का भाव भटक गया है। ये जरुरी है की हम उसे सही रास्ते पर लौटा लाऐं और ज़िंदगी की हर धड़कन साफ-साफ सुनना सिख लें। हम ऐसा कर पाए तो जीवन की रंगत कुछ और ही होगी… इसकी चमक कुछ और ही होगी।
हम बार-बार कहते हैं की ज़िंदगी जीना सबसे बड़ी कला है। ‘कला’ के रूप में रूढ़ माध्यम, विधाएँ, शैलियां – इसी का हिस्सा हैं। कोई किताब पढ़ना, उसे समझना, उसके संदेशों को ग्रहण करना भी कला से कम नहीं। यूं देखें तो हम सब कलाकार हैं। मकान बनाना, खाना पकाना, अच्छी तरह से ड्राइविंग करना, यातायात के नियमों का पालन करना, आपसी आचार-व्यवहार – यह सब अनुशासन और नैतिकता के लिहाज से जितने जरुरी है, उतने ही जीवन को खूबसूरत बनाने के लिए भी आवश्यक हैं। इसी विचार के साथ लौटते हैं वहां, जहां से बात शुरू की थी तो फिर सामने आता हैं – डरा देने वाला, हमें ठहरने को मजबूर करने वाला दुःख। कोई हादसा। एक संकट। कहीं भावनात्मकता के बोझ से हमारी सकारात्मकता की चीख, लेकिन यहीं जरुरी हैं विचार – जीवन के आनंद से बड़ा और कुछ नहीं है।
मार्के की बात यही है की हादसों से डरकर कभी सृजन नहीं हो सकता। कलाओं के, मानवमात्र के, अपनी सबसे सच्ची दोस्त कुदरत के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। सार्त्र कहते थे – ‘मैं जब लिखता हूं तो निराशा के जाल में खूबसूरती पकड़ने की कोशिश करता हूं।’ सार्त्र की यह बात कितनी मौजू है न ! अब अगली बार, निराशा से जूझते हुए कुछ रचने की कोशिश कीजिएगा। यकीनन, खिल उठेंगे आप।
श्रीमदभागवत में कहा गया है – स्मृतियों में लगातार दोहराया जाए तो बीता हुआ सुख भी दुःख की प्रतीति देता है, ऐसे में दुःख से पीड़ा के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा। यह एक सत्य है और संदेश भी। बेहतर यहीं होता है की हम संत्रास के कालेपन को पीछे धकेलकर आने वाली जिंदगी का इस्तकबाल करें। जोश के साथ जीवन के पीछे छूट गए उत्साह को आवाज दें। ज़िंदगी दोगुने उत्साह के साथ बगलगीर होगी। कहते हुए – हां ! तुम तो गुनगुना रहे हो, मुस्कुरा रहे हो, तुम में जीने का उत्साह बाकी है, फिर दुःख परेशान कैसे कर सकता है?
निराशा से मुक्ति का मंत्र है ‘सृजन’
“इंसान निराशा से निकलकर फिर एक नई दुनिया का सृजन करता है”- अल्बेयर कामू
बात थोड़ी आध्यात्मिक जरूर लगेगी, लेकिन गौर कीजिए तो बेहद सामान्य और उतनी ही विशिष्ठ भी है। स्वयं को साक्षी मानकर अपने आसपास के लोगों के जीवन पर नज़र डालिए। सबकी ज़िंदगी में कितना कष्ट है। हमारे लिए जरुरी यह है की हम सब बाकि लोगों को थोड़ी खुशी दे सकें, या फिर स्वयं किसी व्यर्थ पीड़ा में घिर जाऐं? सृजन में तल्लीन होने की बात यहीं पर महत्वपूर्ण हो जाती है।
कितना-कुछ बचा है सीखने के लिए, करने के लिए और आनंद उठाने के लिए और हम हैं की तनावों में घिरे जा रहे हैं। याद कीजिए, उरुग्वे के रचनाकार एडुआर्डो गालेआनो को। लैटिन अमेरिकी लेखक गालेआनो को सैन्य तानाशाही के अत्याचारों का शिकार होकर देश छोड़ने पर विवश होना पड़ा, लेकिन क्या वे ठहर गए? बिलकुल नहीं ! इसके विपरीत तथ्य तो यह है की जब गालेआनो को दबाने की कोशिश की गई तो वे और मजबूत होकर उभरे। वे कहते हैं – ‘जब भी कोई लिखता है तो वह औरों के साथ कुछ बांटने की जरुरत ही पूरी कर रहा होता है। यह लिखना अत्याचार के खिलाफ और अन्याय पर जीत के सुखद एहसास को साझा करने के लिए होता है। यह अपने और दूसरों के अकेले पड़ जाने के एहसास को खत्म करने के लिए होता है।’ कहा जा सकता है की राम-कृष्ण, निराला, गालेआनो या ऐसे और लोग महापुरुष हैं, रचनाकार हैं, इसलिए उनसे आम आदमी की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन ऐसी परिभाषा दरअसल, पलायनवादी होगी। हमने पहाड़ की छाती चीरकर दरिया निकाला है। दरिया की रह मोड़कर फसलों के लिए पानी लाए हैं। यह सब हमारे पुरखों ने किया है तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
अगर आपको देखना आता है तो ज़िंदगी हर हाल में खूबसूरत है और देखना ही क्यों, महसूस करना भी आना चाहिए। मुकम्मल बात यही है की हर निराशा को मुंहतोड़ जवाब देने का एकमात्र तरीका है – सृजन। चाहे वह संगीत का हो, साहित्य हो, कोई और भी कला हो…। खुद में रोते बच्चों को हँसाने की कला जगाइए। जगा दीजिए, किसी अनपढ़ व्यक्ति में पढाई-लिखाई की धुन। वह हँसेगा और देखिएगा – उसकी खिलखिलाहट से आपकी तकलीफ भी दूर भाग जाएगी। ऐसा यकीनन होगा। हर मध्यांतर को अपने लिए नई शुरुआत मानते हुए, निदा फाजली के इस शेर के सहारे संकल्प लीजिए –
“गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो, जिसमें खिले हैं फूल, वो डाली हरी रहे।”
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