सुख-दुःख दो किनारे हैं…Happiness and sadness are two sides…

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सुख-दुःख दो किनारे हैं…

आसमान में बैठे-बैठे, ‘जीवन’ नाम की एक गिलौरी चुभलाते हुए, नियति की दूरबीन लगाकर वह महान कलाकार दूर से ही देखता है अपनी गढ़ी हुई अद्भुत रचना। यह रचना है संसाररुपी नदी, जिसके सुख और दुःख, दो किनारे हैं और मनुष्य है नाविक। यह संसार एक नदी ही तो है। इसका उदगम तब हुआ, जब आसमान में बैठे उस कुम्हार के हाथ से मिट्टी का घड़ा गिरा और उसमें भरे पानी ने छलककर शक्ल ले ली शाश्वत नदी की। इस नदी के पानी का रंग है सफ़ेद। वही रंग, जो हमें हमेशा याद दिलाता रहता है कि इस रंग पर ही संसार के बाकी सब रंग चढ़े हैं, मिले हैं। कभी न सूखने वाली इस नदी में संघर्ष नाम की मछलियां रहती हैं। सामाजिक बंधनों के भंवर में एक बार जरुर पड़ता है मनुष्यरुपी नाविक और नदी के पानी में प्रेम का कमल खिलता है तो किनारों पर घृणा नाम की काई भी जम जाती है। इन सबके साथ नदी निरंतर बहती रहती है… एक लंबी यात्रा के लिए गतिशील।

मनुष्य जब समझ पाता है कि जीवन किस तरह गतिशील है, तब वह मन के किसी कोने में अपनी गुनगुनाहट को आवाज देना नहीं भूलता – “ओ नदिया चले, चले रे धारा।… चंदा चले, चले रे तारा, तुझको चलना होगा… तुझको चलना होगा।’ इस गीत के बोल धुन में सजकर बताते हैं ज़िंदगी का एक बड़ा सच। सत्य, जो हमें हमेशा प्रोत्साहित करता है आगे बढ़ने के लिए। आवाज देता है – हमेशा चलते रहने की खातिर। बिना रुके, बिना थमे, एक से दूसरे छोर तक मनुष्य को जीवन की नैया खेते रहना है। संघर्षों के आगे हार जाना मानव का धर्म नहीं है।

न नदी रुकी, न ज़िंदगी

सुख दुःख दो किनारे हैं.1

कौन हम-तुम?

दुःख और सुख होते रहे, होते रहेंगे

जानकर परिचय परस्पर हम किसे जाकर कहेंगे?

पूछता हूं, क्योंकि आगे जानता हूं, क्या बदा है

प्रेम जग का और केवल नाम तेरा, नाम मेरा

– “पूछ लूं मैं नाम तेरा !” : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

दिन के कोलाहल में जलचर जीव खेलते-कूदते, डुबकियां लगते चारा ढूंढ़ते हैं नदी की गहराइयों में, उसी तरह संसार की नदी में सूरज की रोशनी के बीच मनुष्य चलता रहता है। हंसते-गाते, कभी ठोकरें खाते दाना-पानी की तलाश में। मन की, तन की भूख-प्यास मिटी और नदी की मछलियां व बाकि जीव छिप गए किसी पत्थर की ओट में, तभी नदी के पानी में चमका आकाश के किसी तारे का अक्श… इतना सा कुछ घटा पर नदी नहीं रुकी। मद्धम गति से कल-कल करती, कुदरत की लोरी सुनती आगे बढ़ती रही। न नदी रुकी, न ज़िंदगी।

कुछ नहीं होता सुख-दुःख

सुख और दुःख, दोनों ही उत्तेजनाएँ हैं। प्रीतिकर उत्तेजना को हम सुख और अप्रीतिकर उत्तेजना को दुःख का नाम देते हैं, पर आनंद दोनों से भिन्न हे – वह शांति की स्थिति है।

– ओशो

कोई परिभाषा नहीं है सुख और दुःख की। वस्तुतः खुशी और गम कुछ नहीं, ये हैं हमारा मन और विचार, जो अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग तरह से महसूस करते, सोचते और फिर अभिव्यक्ति देते हैं। बेहतर हालत में किए गए कार्य को हम मान लेते हैं आनंद और बुरी व कठिन परिस्थितियों में हुए कार्य-फल को नाम मिल जाता है पीड़ा का। ये दोनों ही एक-दूसरे से बड़ी नाजुक डोर से जुड़े हैं। यह एक जाल है, जो हमें संसार के भवसागर में गोते खिलाता रहता है। श्रीमदभागवत में कहा गया है -‘द’ दुःख है और ‘स’ सुख। जब तक ज़िंदगी की साइकिल चल रही है, तब तक ये गतिरोधक तो मिलते ही रहेंगे। इनके आने पर साइकिल की रफ़्तार भी कम होगी पर रुकेगी नहीं – इसका यकीन भी न छोड़िएगा।

ज़िंदगी गतिशील है, पर किसी संदेह से, दुःख के बोझ से ठहर जाए, व्याधिग्रस्त हो जाए तो मुरझा जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे डाल से टूटा फल सड़ जाता है और मुरझा जाते हैं पौधे से अलग हुए फूल। ऐसे में जरुरी यह है कि जीवन एक बार रुक भी जाए तो उसे जगा लेने, नई ज़िंदगी की खुशी से भरपूर कर लेने की कोशिश कभी नहीं रुकनी चाहिए। सुख-दुःख के किनारों तक पहुंचने के क्रम में मनुष्य रुपी नाविक प्रतीक्षा का बोझ साथ लिए चलता है, वही जन्म देती है उत्तेजना और विभिन्न प्रतिक्रियाओं को। ये उत्तेजनाएं इतनी गहन होती हैं कि हम भूल जाते हैं – सुख-दुःख स्थायी नहीं, क्षणभंगुर हैं। स्थायी है – संतोष और खुश रहने की आदत, चलते रहने का स्वभाव, चाहे चिलचिलाती धूप हो या फिर खिले हों सूरजमुखी।

जीवन है चलता-फिरता एक खिलौना

इस धूप-छांव को महसूस करते हुए ‘ग़ज़ल-जीत’ जगजीत सिंह की आवाज में पिरोया एक गुनगुनाता समंदर अक्सर नहला जाता है – ‘जीवन क्या है… चलता-फिरता एक खिलौना है… दो आंखो में एक से हंसना, एक से रोना है…। मिट्टी का ये खिलौना इंसान भी तो हरदम चलता रहता है, कभी गम के समंदर में डूबकर, कभी खुशियों की रोशनी को आंखों में कैद करते हुए।

सुख-दुःख ज़िंदगी नाम के सिक्के के दो पहलू हैं। इस सिक्के से ही चलता उस व्यापारी का गोरखधंधा, जो दूर किसी अद्रश्य देश में रहता है, जिसका व्यापार हर कण में फैला है। ये सिक्का चलता रहता है हमेशा, इसकी फेस वैल्यू कभी कम नहीं होती। जैसा हमारे कर्मों का इन्वेस्टमेंट, वैसा ही नफा-नुकसान !

कई बार हम अपने जीवन के उतार-चढ़ावो को भाग्य मान लेते हैं। बेशक, ग्रह-नक्षत्रों का, भाग्य का अस्तित्व होता होगा। यह भी सही है कि ईंट और पत्थरों के नक्षत्र नहीं होते, मनुष्यों के सितारे जरुर बयान किए गए हैं और यह भी कहा गया है कि हमारे कर्म ही उन्हें दिशा देते हैं, लेकिन कर्म का यह बयान किस्मत से ज्यादा, हमारे आज से है।

प्रकृति के नियमों के प्रतिकूल जाना, यानी पीड़ा में खोना और कुदरत के संग-संग कदमताल करना, आनंद में डूबना ! यह अनुभूति भी हर इंसान के लिए अलग है। किसी के लिए दो वक्त भर पेट रोटी खाना ही आनंद है तो किसी के लिए विलासिता के नाम पर लाखों रुपए बर्बाद कर देना ! कहीं वेदना का अर्थ माथे पर खींची कुछ चिंताओं की रेखाएं हैं तो किसी दूसरे के लिए यह अंतस में कैद सदियों का दर्द है, जो बाहर नहीं निकल पाया।

ज़िंदगी की फिक्र को उड़ाना सीखो

जीवन की नदिया गतिशील है। इसके कभी न थमने का निराला अंदाज याद आता है, जब कभी सुनने को मिलता हे ‘हम दोनों’ का गीत – “मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया…।’ गीत के बोल ज़िंदगी के बेहद करीब ले जाते हैं और हमसे कहते हैं – ज़िंदगी ऐसी ही है। कभी न थमने वाली नदी… बहे चलो इसके साथ, इसकी धीमी और तेज लहरों का साथ निभाते हुए। इस नदिया में हजारों जीव-जंतु डुबकियां लगाते रहते हैं, पर सीप का मोती उसी को मिलता है, जो महासागर तक पहुंच पता हे, यानी उस जगह, जहां आनंद है। जीवन की गुत्थियां जहां पहुंचकर सुलझ जाती हैं। ज़िंदगी नाम का चूल्हा तो हरदम धधकता ही रहेगा, पर संतोष की रोटी कभी-कभार ही पकती है। दुःख न खट्टे अंगूर हैं और न ही सुख है मीठा आम। ये तो इमली की तरह हैं, इनका चटखारा लेने की हिम्मत बचाकर रखनी चाहिए। यह सब कुछ वैसे ही है, जैसे सर्दियों में ठंडी शिकंजी पीना और गर्मियों में गर्मागर्म कहवा की चुस्कियां लेना…।

गम आए, खुशी आए… सबका स्वागत!

कभी यूं ही स्याह रात में अपने कमरे के झरोखे से दिखती तारों की चादर देखकर मन में एक ख्याल आता है कि आखिर ये टिम-टिम करते तारे, जो रातभर सुख और दुःख के किस्से सुनाते रहते हैं, सुबह कहां गुम हो जाते हैं, कौन-से अनंत आकाश में जाकर मिल जाते हैं? ये सब जुगनुनूमा तारे सुबह के वक्त अपनी रोशनी का गुलदस्ता सूरज को भेंट करने जाते हैं तो हम क्यों मुरझा जाते हैं सुख-दुःख में बिंधकर?

तारों जैसे ही है हमारा जीवन भी। गम आए, खुशी आए – सबका स्वागत करते रहें। जब-जब ठहरे यह जीवन, एक बार फिर सारी हिम्मत जुटाकर इसे पुनर्जीवन देने की कोशिश करें। नदी सागर से मिली, एक नया रुप पा गई।

आइए, हम भी मिलें अपने संतोष से। उल्लास से। ईश्वर से। जगा लें खुद में, खुद के लिए विश्वास। यही भरोसा ही तो सबसे बड़ा है। यहीं आकर हर कष्ट, हर खुशी – सबको समतल आधार मिल जाता है। संतोष की धरती पर सब एक रंग हैं, एक जैसे खारे और एक जैसे मीठे !

इसी के साथ हम इस Article को यही पूरा करते हैं। आशा करता हूँ की इस Article द्वारा दी गयी सीख आपके जीवन में उपयोगी साबित होगी। अगर आपको ये Article उपयोगी हुआ हो, तो आप अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ यह जानकारी जरूर साझा करें एवं नई-नई जानकारी के लिए हमारी वेबसाइट articletree.in को अवश्य विजिट करें। हमारे ब्लॉग पर आने के लिए आपका धन्यवाद !

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