मुल्ला नसरुद्दीन की सदाबहार 11 हास्य कहानियाँ Mulla Nasaruddin’s Famous 11 Funny Stories in hindi

मुला नसरुद्दीन की सदाबहार कहानियाँ 1024x538

प्राचीन फ़ारसी लोक चरित्र मुल्ला नसरुद्दीन की लघु और सदाबहार हास्य कहानियाँ।

(1). मछली तो फंस चुकी

मुल्ला नसरुद्दीन की सदाबहार हास्य कहानियाँ Mulla Nasaruddins Evergreen Funny Stories In Hindi1

एक सल्तनत का वज़ीर मर गया। सुल्तान को अपनी रियाया की बड़ी फिक्र रहती थी। उसने अपने आदमियों से कहा, ‘ऐसा कोई काबिल आदमी ढूंढ़ कर लाओ, जिसने गुर्बत देखी हो, जो अपनी जड़ों से जुड़ा हो और तकलीफ के दिनों को भुला न बैठा हो। हम ऐसे ही किसी शख्स को अपना नया वज़ीर मुकर्रर करेंगे।’

यह बात किसी तरह मुल्ला नसरुद्दीन के कानों तक पहुंच गई। उसने कहीं से मछली पकड़ने का एक पुराना जाल हासिल किया और उसे पगड़ी की तरह सिर पर लपेटकर घूमने लगा। सुल्तान के आदमियों की नज़र मुल्ला नसरुद्दीन पर पड़ी। उन्होंने उससे उसकी इस अजीबो-गरीब पगड़ी के बारे में पूछा।

मुल्ला नसरुद्दीन ने नवाब दिया, ‘यह जाल वही है, जिससे मछली पकड़ कर हमारे दादा हुजूर ने हमारी दो पीढ़ियों की परवरिश की। मैं उन गुर्बत और तकलीफ के दिनों को भूल न जाऊं, इसीलिए इस जाल को इज्ज़त से पगड़ी की तरह पहने रहता हूं।’ जाहिर था, बात सुल्तान तक पहुंचनी ही थी।

सुल्तान ने मुल्ला नसरुद्दीन को बुलाया और अपना वज़ीर मुकर्रर कर दिया।

पहले दिन मुल्ला नसरुद्दीन जब कचहरी में जाकर बैठे, तो लोगों ने देखा, उसने ठीक वज़ीरों जैसा कमख़ाब का चोगा पहन रखा है और उसके सिर पर शानदार जड़ाऊ पगड़ी रखी है। किसी ने पूछा, ‘मुल्ला, तुम्हारी उस जाल वाली पगड़ी का क्या हुआ?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने जवाब दिया, ‘उसकी जरुरत ही क्या है, मछली तो फंस चुकी।’

(2). बेवकूफ कौन

बेवकूफ कौन

मुल्ला नसरुद्दीन की शोहरत इतनी ज्यादा हो चली थी कि आसपास के इलाकों में उनसे जलने वाले भी कम नहीं थे। वह जितना बेहतर करते, कुछ लोग उतनी ही जलन रखते।

पड़ोसी कस्बे का एक शख्स बहुत जल-भुन कर इस नतीजे पर पहुंचा कि अब बहुत हो गया, क्यों न मुल्ला के घर ही पहुंचकर उनके इल्म से दो-दो हाथ कर लिए जाएं। मुल्ला को पता लगा कि कोई शख्स उन्हें मात खिलाने को उतावला रहा है तो अच्छे मेजबान की तरह उन्होंने पहल की और खुद ही उसे अपने घर आने का न्योता भेज दिया।

वो शख्स मुल्ला से बहस के लिए उनके घर पहुंचा तो उसने दरवाजे पर ताला लगा पाया। मुल्ला को घर पर न पाकर वह आग-बबूला हो उठा और कहने लगा, ‘मुझे घर बुलाकर खुद गायब हो गया कायर।’ जाते-जाते वो उनके दरवाजे पर लिख गया, ‘बेवकूफ।’

जब मुल्ला लौटकर आए तो उन्होंने अपने दरवाजे पर ‘बेवकूफ’ लिखा देखा और उलटे पांव उस शख्स के घर रवाना हो गए। वहां पहुंचकर उन्होंने दरवाजा बजाया। दरवाजा खुलते ही मुल्ला ने कहा, ‘जनाब, आप मेरे यहां आए थे बहस के लिए, अफसोस ! उस वक्त मैं घर पर नहीं था। दरअसल, ‘मैं बहस की बात ही भूल गया था, लेकिन दरवाजे पर आपके दस्तखत देखते ही मुझे याद आ गया और मैं चला आया।’

(3). खैरात का हक

मुल्ला नसरुद्दीन की सदाबहार हास्य कहानियाँ Mulla Nasaruddins Evergreen Funny Stories In Hindi

न चाहकर भी मुल्ला नसरुद्दीन को यह दिन देखने पड़े। पड़ोसी से पैसे मांगने की जरुरत पड़ गई। वह भी बहाने के साथ।

मुल्ला नसरुद्दीन ने पड़ोसी से कहा, ‘तुम मुझे कुछ पैसे खैरात में दे दो। मैं यह पैसा जरुरतमंदों के लिए जोड़ रहा हूं।’ पड़ोसी भी दरियादिल इंसान था, उसने देर नहीं की। खैरात देते हुए जब उसने जरुरतमंद का नाम जानना चाहा तो मुल्ला ने झट से पैसे जेब में डाले और रफूचक्कर होते हुए कहा, ‘वो जरुरतमंद मैं ही हूं।’

दो महीने बाद फूटी तकदीर मुल्ला को फिर उसी पड़ोसी की चौखट पर ले आई। इस बार पड़ोसी उसकी बात में फंसने वाला नहीं था, उसने कहा, ‘तुम मुझे दुबारा बेवकूफ नहीं बना सकते, तुम सिर्फ अपने लिए पैसे जोड़ते हो।’ मुल्ला ने सफाई दी, ‘मैं कसम खाकर कह रहा हूं, इस बार तो मैं कर्जा उतारने को मांग रहा हूं।’ पड़ोसी को उस पर रहम आ गया। उसने पैसे देते हुए कहा, ‘ऐसा फिर किसी के साथ मत करना।’ मुल्ला से चुप न रहा गया। वह बोल पड़ा, ‘तुमने मुझ जरुरतमंद को पैसे दिए हैं तो फिर मैं ऐसा किसी और के साथ क्यों करुंगा !’

(4). कुऐं से निकला चांद

कुऐं से निकला चांद

रात का समय था। मुल्ला नसरुद्दीन एक कुऐं के पास से गुजर रहे थे। एकाएक उन्हें क्या सुझा कि वह कुऐं में झांकने लगे। पानी में चमकता चांद देख उन्हें काफी दुःख हुआ। ‘बेचारा कुऐं में गिर गया।’ मुल्ला ने सोचा और थान ली कि उसे कुऐं से निकाल कर ही रहेंगे।

वह कहीं से एक रस्सी ले आए और उसे कुऐं में डाल दिया। मुल्ला रस्सी हिलाते जाते और ताज्जुब करते जाते कि चांद आखिर कुऐं में गिरा कैसे? मुल्ला की मेहनत बेकार नहीं गई। रस्सी में चांद तो नहीं, एक पत्थर जरुर अटक गया। मुल्ला ने सोचा चांद है। उन्होंने ताकत लगाकर रस्सी खींचनी शुरु की। रस्सी में खिंचाव आया। पत्थर थोड़ी देर तक उठा, फिर गिर गया। उधर रस्सी का दूसरा छोर खींच रहे मुल्ला भी पीठ के बल जमीन पर जा गिरे।

गिरते ही उन्हें चांद-तारे नज़र आ गए। आसमान में चांद देखते ही उन्होंने खुद से कहा, ‘ओह! आखिर मैंने चांद को कुऐं से निकाल ही लिया।

(5). सर कैसे काटता

सर कैसे काटता

तुर्की की फौज का डेरा एक बार उस कस्बे में रहा जहां मुल्ला नसरुद्दीन रहा करते थे। सिपाहियों को देख गांव वाले भी इकठ्ठा हो जाते। कोई उनके कपड़े देखता तो कोई उनके हथियार घूरता। भीड़ देख मामूली सिपाही भी रौब-दाब में आ जाता। रात को अलाव जलाए सिपाही गांव वालों का दिल बहलाने के लिए अपनी बहादुरी के किस्से बढ़ा-चढ़ाकर सुना रहे थे।

कोई सिपाही बताता कैसे उसने दस-दस ऊंट वाले सिपाही ठिकाने लगा दिए तो कोई बताता कि कैसे वह अकेला ही पूरी फौज का खात्मा कर आया। गांव वाले तो सिर हिला-हिलाकर सिपाहियों के ‘झूठ’ भी सच मान रहे थे, लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन देर तक यह बर्दाश्त नहीं कर पाया और बोल पड़ा, ‘मेरे पास भी बहादुरी का एक किस्सा है, जो मैं सुनाना चाहता हूं।’

मुल्ला नसरुद्दीन के मुंह से यह निकलते ही सिपाही और गांव वाले यकायक उसकी और देखने लगे। मुल्ला ने उन्हें सुनाया, ‘एक दिन कुछ दुश्मनों ने गांव पर हमला कर दिया तो मैंने एक दुश्मन की टांगे काटकर उसे बादशाह के दरबार में हाजिर किया। इस पर मुझे इनाम में दस सोने की मोहरें मिली।’ यह सुनते ही एक सिपाही बोला, ‘तुम बेवकूफ थे, टांगों की जगह सर काट लेते तो दस की जगह पूरी सौ मोहरें मिलती।’ मुल्ला ने तपाक से जवाब दिया, ‘कैसे काटता! उसका सर बादशाह हुजूर के सिपाही पहले ही काट ले गए थे।’

(6). अजीब शहर

अजीब शहर 1

एक दिन किसी काम से मुल्ला नसरुद्दीन को किसी दूसरे शहर जाना पड़ा। वह तिजारत के लिए वहा गए थे, लेकिन वो शहर उन्हें अपने माफिक नहीं लग रहा था। उखड़े-उखड़े मुल्ला उस अनजान शहर में रात को गुजर रहे थे। तभी एक कुत्ता उन्हें देखकर भौंकने लगा। कुत्ता भगाने पर भी नहीं भाग रहा था और लगातार उन पर भौंके जा रहा था। मुल्ला से जब नहीं रहा गया तो उन्होंने गुस्से में उसे मारने के लिए एक पत्थर उठाना चाहा, पर वह पत्थर टस से मस नहीं हुआ।

होता भी कैसे, जमीन में जो धंसा था। अब मुल्ला झुंझलाए और आगे बढ़ चले, ‘क्या अजीब शहर है, यहां कुत्ते आजादी से भौंक रहे हैं और पत्थरों को जमीन में जमा दिया।’

(7). कयामत का दिन

कयामत का दिन

मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक भरीपूरी भेड़ थी। अच्छी सेहत की वजह से वह लोगों की ललचाई निगाह में बनी रहती थी।

एक दिन मुल्ला के नजदीकियों ने चालाकी से काम लिया और मुल्ला को बताया कि, ‘क्या तुम्हें पता है, कल दुनिया खत्म होने जा रही है। क्यों न रहे-रहे लम्हों को जश्न में बिता लिया जाए।’ मुल्ला को भी यह बात जंची। उनकी ‘हा’ होते ही एक बोल पड़ा, ‘क्यों न हम यह जश्न नदी किनारे रखें, आप अपनी भेड़ ले आना, हम शराब लाएंगे।’ मुल्ला भी राजी हो गए और बोले, ‘ठीक है, आप लोग अपने बेहतर कपड़ो में आना।’

दूसरे दिन दावत और जश्न के लिए वे सब अपने शानदार कपड़े लेकर नदी के किनारे जमा हुए। मुल्ला ने इस मौके पर अपनी भेड़ को काटा और उसे भुनने रख दिया। सब ने सोचा कि जब तक भेड़ आग पर सिंक रही है, क्यों न नहा लिया जाए। इधर मुल्लाने सब के नए कपड़े समेटकर आग के हवाले कर दिए।

उधर जब सभी लोग नहाकर निकले तो देखा कि उनके किनारे पर रखे हुए कपड़े गायब हैं। उन्होंने मुल्ला से पूछा, ‘हमारे कपड़े कहां हैं?’ मुल्ला ने जवाब दिया, ‘मैंने उन्हें भेड़ सेंकने आग के हवाले कर दिया।’ यह सुनते ही सकत में आए लोग रो-रोकर कहने लगे, ‘तुमने ऐसा क्यों किया। अब हम बिना कपड़ो के कैसे बाहर निकलें, क्या करें?’ मुल्ला ने एक झटके में सबका मसला हल कर दिया। उसने कहा, ‘जब दुनिया कल खत्म हो रही है तो आप लोग कपड़ो का क्या करेंगे?’

(8). यह तो अच्छा हुआ कि…

यह तो अच्छा हुआ कि

सुल्तान से तोहफे में मिली जमीन से मुल्ला नसरुद्दीन खूब फायदा उठाए जा रहे थे। पिछले दफे उन्होंने खजूर लगाए और अच्छी आमद पर टोकरी भरकर सुल्तान को दी। मीठे खजूर खाकर सुल्तान बेहद खुश हुए की मुल्ला ने जमीन और सुल्तान दोनों का अच्छा ख्याल रखा है।

इस बार मुल्ला नसरुद्दीन ने खजूर नहीं तरबूज बोए। फसल अच्छी आई तो उन्होंने सोचा कि, क्यों न सुल्तान के यहां बोरा भरकर तरबूज दे आऊं। जब वह बोरा उठाए जा रहे थे तो रास्ते में उन्हें अपना पुराना हमदर्द दोस्त मिल गया जो कभी-कभार उन्हें नेक सलाह दे दिया करता था। दोस्त ने पूछा, ‘कहां जा रहे हो? यह बोरी भरे तरबूज लेकर।’ मुल्ला ने कहा, ‘सुल्तान को तोहफे में देने जा रहा हूं।’ दोस्त बोला, ‘तुम मूर्ख हो ! भला सुल्तान इतने सारे तरबूजों का क्या करेगा? फिर तरबूज भी कोई तोहफे में देने की चीज है। अरे तुम तोहफा देना ही चाहते हो तो कोई अच्छी चीज दो। क्यों नहीं लाल फूल दे देते।’

मुल्ला नसरुद्दीन ने सोचा कि दोस्त सही कह रहा है, वाकई फूल अच्छा तोहफा साबित होंगे? उन्होंने फूलों का गुच्छा तैयार करवाया और लेकर पहुंच गए सुल्तान के दरबार में। यह मुल्ला की बदनसीबी ही थी कि उस वक्त सुल्तान का दिमाग ठीक नहीं था। वह किसी बात से बेगम पर भड़क तो रहे थे पर अपना गुस्सा नहीं उतार पा रहे थे। तभी उनकी नज़र मुल्ला के गुलदस्ते पर पड़ी। और उन्होंने फूल छीनकर उसी के मुंह पर दे मारे। सुल्तान का मिजाज भांपते ही मुल्ला ने अब वहां से चुपचाप खिसकने में ही खैरियत समझी। रास्ते भर अपनी तकदीर का शुक्रिया अदा किए जा रहे मुल्ला सितारों की ओर हाथ उठा-उठाकर कहे जा रहे थे, ‘वो तो अच्छा हुआ जो रास्तें में दोस्त मिल गया और उसने तोहफे में फूल देने की सलाह दे डाली। अगर उसकी न मानकर मैं बोरी भरे तरबूज ले जाता तो वह सब मेरे मुंह पर पड़ते, मैं तो मर ही जाता।’

(9). मामूली-सा कर्ज़

मामूली सा कर्ज़

मुल्ला नसरुद्दीन को कर्ज़ देने वाला दुकानदार कई दिन से इस फिराक में था कि, कब मुल्ला नज़र आए और वह तकाजा पूरा करे।

एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन कन्नी काटकर बाज़ार से गुजर ही रहे थे कि अचानक दुकानदार जोर से चिल्लाया, ‘मुल्ला ! मुल्ला ! तुम मेरा कर्ज़ चुकाने में नाकाम रहे हो।’ यह सुनकर मुल्ला को बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ी। उन्हें लानत-सा महसूस हुआ। पर सब्र बांधकर उन्होंने अपना दिमाग दौड़ा ही दिया। मुल्ला ने दुकानदार से बड़े अदब के साथ पूछा, ‘मेरे अजीज ! बताओ तो जरा, मुझे कितना कर्ज़ चुकाना है?’

दुकानदार ने याद दिलाया, ‘पचहत्तर सोने के सिक्के।’ दुकानदार को गुस्सा आए जा रहा था पर तभी मुल्ला जोर से बोलने लगे, ‘आप जानते हैं मैं पैंतीस सिक्के तो कल दूंगा और बाकी पैंतीस अगले महीने।’ अब रह गए केवल पांच? इसका मतलब है मैं अभी केवल तुम्हारे पांच सिक्को का कर्ज़दार हूं और पांच सिक्कों के लिए इतना हल्ला !’

(10). ज़्यादा गलत

ज़्यादा गलत

कोई महेमान बनकर मुल्ला नसरुद्दीन के यहाँ रुका और उनके चाहने पर भी जाने का नाम नहीं ले रहा था। मुल्ला के ताल्लुक उससे अब मीठे नहीं, बल्कि झुंझलाहट भरे हो चले थे।

एक रात उस महेमान को गुसलखाना जाना था। अंधेरे की वजह से उसने मुल्ला से कहा, ‘तुम मुझे वह चिराग दे दो, जो तुम्हारे उल्टे हाथ की तरफ रखा है।’ खार खाए बैठे मुल्ला ने जवाब दिया, ‘क्या तुम पागल हो ! मेरे उल्टे हाथ की तरफ सीधे हाथ के मुकाबले ज़्यादा अंधेरा है।’

(11). बेमौके के ढोल

बेमौके के ढोल

न तो कोई ईद थी, न कोई ऐसी खुशी का मौका कि ढोल पीटा जाए, लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन के हाथ थे कि रोके नहीं रुक रहे। बस दिए जा रहे थापें। उनके ढोल की बे-मौकाई आवाज ने पड़ोसियों को भुना दिया।

एक पड़ोसी जो जानता था कि मुल्ला नसरुद्दीन को ढोल अच्छा बजाना आता है, पर इस समय क्यों बजा रहा है? यह जानने उन तक आया। घरों से और लोग भी जानना चाहते थे कि वहां आखिर हो क्या रहा है? पड़ोसी ने कहा, ‘तुम बिना मौके पागलों की तरह ढोल क्यों पीटे जा रहे हो?’

मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘मैं जंगली शेरों को दीवार के दूसरी तरफ ही रहने देना चाहता हूं, इसलिए ढोल बजा रहा हूं।’ पड़ोसी ने फिर पूछा, ‘पर मुल्ला अपने इलाके में तो दूर-दूर तक कोई शेर है ही नहीं।’

मुस्कुराकर मुल्ला ने कहा, ‘इससे क्या? कोई भी काम अच्छे से करना आना चाहिए, है न !’

इसी के साथ हम इस Article को यही पूरा करते हैं। आशा करता हूँ की इस Article में लिखी मुल्ला नसरुद्दीन की लघु और सदाबहार हास्य कहानियाँ पढ़कर आपको ख़ुशी हुई होगी। अगर आपको ये Article की कहानियाँ पढ़कर मझा आया हो, तो आप अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ यह कहानियाँ जरूर साझा करें एवं नई-नई जानकारी के लिए हमारी वेबसाइट articletree.in को अवश्य विजिट करें। हमारे ब्लॉग पर आने के लिए आपका धन्यवाद !

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