अधूरेपन का पूरा अर्थ है जीवन
जीवन का अर्थ
जीवन का अर्थ तलाशते हुए पूरा जीवन बीत जाता है, लेकिन संपूर्ण परिभाषा नहीं मिलती। ऐसा क्यों होता है, इस सवाल का जवाब नहीं मिलता। वजह साफ है – हम जीवन को दैवीय स्वरुप में देखते-परखते हैं। हम जीवन की पड़ताल करते समय इसकी उदात्त, वृहद और जटिल संरचना को समझने की कोशिशें करते हैं और निष्कर्ष के विभिन्न पैमानों पर मापतौल करने में व्यस्त हो जाते हैं। इसके विपरीत सरलता के साथ जीवन की परतों की छानबीन करें तो यूं ही, यकायक, सामने आ जाएगा – जीवन का अर्थ।
ज़िंदगी के मायने हजार हैं। ऐसे ही इसके विविध रंग हैं। इसे समझने के अलग-अलग विचार और अंतर्दृष्टियां हैं, लेकिन ज़िंदगी इनके साथ-साथ, इन परिभाषाओं से एकदम अलग सामने आती है। जीवन इतना अर्थवान है कि इसके हर पहलू का अर्थ जुदा है और अपने आपमें संपूर्ण भी। गुणीजन बताते हैं कि अधूरा जीवन हमें प्रभावित नहीं करता। इससे अलग खास बात यह कि ज़िंदगी में अधूरेपन के अपने ही मायने हैं, जिसे समझने के लिए जरुरी है कि हम अर्थवत्ता की अपनी परिभाषा थोड़ी दुरुस्त कर लें, अपने ख्वाबों के पर कुछ समेटने की कोशिश कर लें।
बचपन के दिनों में लौटिए
बचपन के दिनों में लौटिए, याद कीजिए – पांच-छह साल की उम्र। उस वक्त गणित की दुरुह पहेलियां हल करने का कौशल नहीं था, लेकिन ज़िंदगी किस कदर आसान लगती थी। रिश्तों की छानबीन हम नहीं कर पाते थे, लेकिन हर संबंध अपने आपमें मुकम्मल था।
बच्चे क्या जानें, मामा-फूफा-बुआ-मासी जैसे तरह-तरह के रिश्तों की बनावट, लेकिन हर गोद में माता-पिता की ममता और गर्माहट तलाश लेते हैं। पारिवारिक रिश्ते ही क्यों – आस-पड़ोस के लोग, दूधवाले, हॉकर और वॉचमैन के साथ भी वैसे ही प्यार भरी रिश्तेदारी होती है उनकी। कहने को बड़े होकर ज़िंदगी, समाज, संबंधों और अस्तित्व की छानबीन हम करने लायक हो जाते हैं, लेकिन बचपन-सी निश्छलता और भावबोध कहीं गुम हो जाता है। है कि नहीं?
जीवन को समझने का प्रयास
ज़िंदगी को हम नए तर्जुमान देने की कोशिश अलग-अलग अंदाज में करते हैं। कोई घरेलू रहकर जीवन को समझने का प्रयास करता है तो कई लोग संन्यासी की राह पर आगे बढ़ जाते हैं। किसे, कहां, किस तरह ज़िंदगी मिली, उसका अर्थ पता चला – यह समझना उतना ही जटिल है, जीतनी ज़िंदगी और हां, जीवन की तरह ही यह बहुत सरल भी है। जीवन अपने आप में विकट पहेली है और इसका सारतत्व समझना बहुत सरल भी है। नारियल की खोज जीतनी कठिन है ज़िंदगी और उसके गुदे जैसी ही मीठी और रसभरी भी।
इस यात्रा में बहुत-से लोग संन्यास मार्ग अपनाने के बाद पुनः गृहस्थ बन गए हैं। कारण साफ है, संन्यास का मार्ग चुनते समय उनके मन में शंका थी। समर्पण संपूर्ण नहीं था। कहीं न कहीं संन्यासी होने का निश्चय करने वाले ऐसे लोगों ने सोचा होगा – यह पूरी तरह सही नहीं है। पूरा समर्पण हो तो लौटने का रास्ता नहीं बचता, क्योंकि एक पायदान तक पहुंचने के बाद निचली सीढ़ी वैसे ही हट जाती है। गृहस्थी में लौटने की वजह क्या थी। यही कि संन्यास में भी जीवन के मुकम्मल होने का एहसास नहीं मिला। अंतर्मन में यह विचार बना रह गया कि संन्यास के अलावा, संसार में भी जीवन को संपूर्ण बनाने की कोशिश की जा सकती है।
संपूर्णता क्या है?
संपूर्णता क्या है? और किसी मायने में अगर हम संपूर्ण हो भी गए तो, क्या वह सच्चे अर्थ में संपूर्ण होना हुआ? एक अर्थ में बचपन उम्र की संपूर्ण अवस्था है और कैशोर्य भी। कुछ लोग मानते हैं कि वृद्धावस्था में व्यक्ति संपूर्ण होता है, क्योंकि तब उसके विचार गंभीर बन पाते हैं, लेकिन इसे क्या कहेंगे कि बुढ़ापे में मन चंचल हो जाता है और बचपन की ओर लौटने की ख्वाहिश पालने लगता है। कागज की किश्तियां पानी में तैराने और दादी की कहानियां फिर सुनने को आतुर हो उठता है। साफतौर पर वय का पुष्ट होना भी संपूर्णता नहीं है। फिर संपूर्णता क्या है। क्या यह एक भ्रम है? और अधूरा होना ही ध्रुवसत्य…?
हमने अपनी पूरी उम्र जी ली। ज़िंदगी का आखिरी लम्हा है और मन में इच्छा जन्म ले रही है – कुछ सांसें और मिल जातीं तो बचे काम पुरे कर लेते। यह भी छटपटाहट है। पूरी उम्र अधूरी लग रही है। मुकम्मल होने का भ्रम और उसकी तलाश किसलिए? जीवन में अक्सर बना रहता है एक अधूरापन, जो बार-बार उठकर टोकता है – यह वह राह नहीं, जिस पर चलना चाहा था और यह भी – जीवन मुकम्मल कहां हुआ है? मतलब यही कि अंततः कुछ न कुछ है, जो अधूरा लगना है, अधूरा रह जाना है, फिर अपूर्णता से परहेज क्यों?
कुदरत में कुछ भी संपूर्ण नहीं है
दुनिया में कुछ भी समूर्ण, यानिकी मुकम्मल नहीं है। महान ग़ज़लकार निदा फ़ाज़ली अपनी एक ग़ज़ल में कहते है,
“कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता “
कुदरत में ऐसा कुछ नहीं है, जो मुकम्मल हो। इसकी वजह ईश्वर नहीं है। ईश्वर ने सबको सब कुछ दिया है। बात गुणों की है, भौतिक संपत्ति की नहीं। व्यक्ति अपने कर्मों और परिवेश के अनुसार भौतिक सुख-समृद्धि या तो अर्जित कर पाता है या फिर विचलन का शिकार हो जाता है। ऐसे में कभी, कुछ मुकम्मल नहीं होता। कई बार सुख-संपत्ति अपार होती है, लेकिन मन वैरागी होना चाहता है। कही और, वैराग्य में संसार की ओर मुड़ने की इच्छा जन्म ले लेती है। असल मायने में सोच इसका कारण है। यह आप पर निर्भर करता है। इसके साथ ही यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि निराशा का गलियारा हमेशा अंधेरे से लबालब रहता है। इस सफर में रोशनी की एक किरण भी नहीं मिलती।
एक-दो उदाहरण देख लेते हैं। कभी सोचने बैठिए, हमने जीवन में क्या हासिल किया। पता लगेगा – ढेर सारी असफलताओं की लिस्ट आंखों के सामने आकर टंग गई है। यही नहीं, किसी को लेकर मन में दबी ईर्ष्या भी सिर उठाकर खड़ी हो जाएगी। हां, फलां ने तो वह मुकाम हासिल कर लिया और मैं हूं कि पीछे ही रह गया – जैसे भाव, लेकिन गौर करें कि हमें क्या-क्या मिला, कौन-सी उपलब्धियां हमारे हिस्से में आई तो आंखें खुली रह जाएंगी। चेहरे पर ख़ुशी छलकने लगेगी। तब लगेगा, ऐसा क्या है, जो अपने हिस्से नहीं आया है। स्वजनों का प्रेम, बेहतर रोजगार, सुंदर किताबें, खूबसूरत कुदरत – सब तो है अपने पास। बात वही फिर दोहरानी होगी की परिभाषा क्या है? हम जीवन के किस अर्थ की तलाश कर रहे हैं?
अंतमें…
इसी के साथ हम इस Article को यही पूरा करते हैं। आशा करता हूँ की इस Article में ‘जीवन’ के अर्थ की जो बात की गई है, वह आपको आगे बढ़ने की प्रेरणा देगी। अगर आप इस Article से प्रेरित हुए हो, तो आप अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ यह जानकारी जरुर साझा करें एवं नई-नई जानकारी के लिए हमारी वेबसाइट articletree.in को अवश्य विजिट करें। हमारे ब्लॉग पर आने के लिए आपका धन्यवाद !




































